भारतीय दर्शन - संतोष का स्तर
भारतीय दर्शन सम्पूर्ण विश्व में अपनी जो पहिचान रखता है उसमे मूल भाव यही रहता है कि मनुष्य का जन्म केवल खाने ,पहनने ,बच्चे पैदा करने और शक्ति प्रदर्शन या भयाक्रांत होकर जीने के प्रयत्न करने में नहीं है , उसका सम्पूर्ण जीवन निश्चित उद्देश्य के लिए ही निर्धारित है और वही उसको पूर्णता देसकता है |
भगवान परुशराम ने अपने एक शिष्य को एक दुर्गम पर्वत से एक अमर फल लाने का आदेश दिया और बताया पुत्र इस समय तुम्हारे साथ शिक्षा लेने भगवान कृष्ण और उनके सभी अंश आये हुए है जो अति शक्ति शाली और जगत के आधार भी है मेरा मान बढ़ने के लिए शिष्य बनकर शिक्षा प्राप्त कररहे है ,चाहता हूँ कि मै तुमसबको अमर कर दूँ , शिष्य ने लालच भरी नजर से गुरु को देखा और अमर फल लाने चल दिया वहां से फल लाकर उसके मन में यह लालच खड़ा हो गया कि अब मुझे गुरु की आवश्यकता ही क्या है, मै और मेरी प्रेमिका इस फल का उपयोग करके अमर हो जाएंगे और फिर हमे डर भी तो नहीं रहेगा , हम तो अमर रहेंगे न ,शिष्य ने फल अपनी प्रेमिका को दिया प्रेमिका ने वह फल अपने एक दूसरे प्रेमी जिसे वह चाहती थी उस को दिया उस प्रेमी ने सोचा कि मई तो स्वयं इन तीन चार प्रेमिकाओं से कष्ट प् रहा हूँ तो यह जीवन तो कष्टों और भोग्यों का ही नाम ही समझता हूँ ,मैं इसे तो किसी साधु को दे देता हूँ , उसने वह फल भगवान परुशराम को दे दिया भगवान परुशराम ने सारा वृतांत जाना और अपने शिष्यों से पूछा क़ि इसका क्या करें कृष्ण ने कहा महा प्रभु जीवन तो कर्म का ही नाम है और उसमे यदि परिवर्तन ,सुख दुःख ही नहीं रहा तो वह निर्जीव और मृत्यु से भी अधिक यातना का विषय बन कर रह जावेगा , अतः मुझे इस फल की कामना है ही नहीं है , इस प्रकार सारे शिष्यों ने फल कामना से इंकार कर दिया,
सबके निर्णय के बाद भगवान परुष राम से कृष्ण ने इस लीला का कारण पूछने पर बताया कि हे जनार्दन मै बताना चाहता था कि संसार में विश्वास का सर्वथा आभाव है और जीवन की नश्वरता ही जीवन को रस देनेवाला तत्त्व है और हम केवल एक अमरता को यदि समझ पाये तो हम जीवन को जीत सकते है और वह अमरता है केवल आत्मा की है ,यह कहते हुए उन्होंने वह फल पास खड़ी एक युवती को दे दिया जिसका नाम था समस्या ,और यह भी कहा कि ध्यान रहे जिसे अपनी नश्वरता और आत्मा की अमरता का ज्ञान हो जाएगा तो तुम अमर होकर भीउस व्यक्ति से स्वतः हार जाओगी |
इसके बाद भगवान परुष राम ने कहा हे कृष्ण जीवन का सार बस यही है अपनी साँसों के मध्य स्वयं को केंद्रित रखो हर आने वाली स्वांस हर जाने वाली स्वांस मृत्यु है जनार्दन वहीँ से जीवन का आकलन करो , यहाँ न तो जीवन है न ही यहाँ मृत्यु है , न ही विषाद है और न ही हर्ष है ,यहाँ न कोई सम्बन्ध है न कोई प्रिय है और नहीं कोई अप्रिय है ,सब अपने आपमें सिमटे ,अपने अपने कर्त्तव्य बोध से बने कर्म में रत है ,यहाँ से आप स्वयं का आकलन करते हुए स्वयं सिद्ध हो सकते है, हे नारायण शरीर के अमर होने में अनंत विषाद है ,जबकि आत्मा की अवस्था चिरंतन और अनवरत अमरता लिए हुए है ,जो इसका रहस्य जानते है वे स्वयं जीवन मृत्यु की मानसिकता से परे है , तुम एक श्रेष्ठ आत्मा हो और हर कर्म का फल तुम्हारा भविष्य है , इस लिए निस्वार्थ निर्लिप्त भाव से जीवन को जीने का प्रयत्न करो और आसक्ति ही तुम्हारे दुःख का कारण होगी चाहे वह सम्बन्ध हों , या साधन ,या संसार में जीवन मृत्यु ही क्यों न हों या तुम्हारा जीवन के प्रति आंकलन हो ,आत्मा की अमरता का बोध और स्वांसों के मध्य एकाग्र करने का नाम ही महायोग जीवन है इसके आलावा सब कुछ मिथ्या है |
प्रश्न यह है कि फिर मुझे प्रेम करने वाले मुझे जन्म देने वाले मुझे अच्छे लगने वाले ये कौन है यदि मै इनके प्रेम मै हूँ तो कहाँ गलत हूँ , महा योगी परुशराम ने कहा हे वासुदेव हम सब अपनी अपनी भूमिका निभाने और अपने कर्म और दंड की प्रक्रिया की पूर्ती के लिए यहाँ कर्म रत है , सम्पूर्ण जीवन का नाम क्रिया योग साधना ही तो है जहाँ चाहते न चाहते हमे अपने कार्य साधन में लगे रहना होता है हर इंसान अपने अपने हिसाब से अच्छे बुरे कर्मों में अपना भविष्य बना और बिगाड़ रहा है जो स्वांसों के बीच स्थिर रहने की कला जानता है वह संबंधों , दुःख , सुख और जीवन की नश्वरता के कारणों से प्रभावित नहीं हो सकता वह तो जीवन को कर्म योग मान कर उसे सम्पूर्णतः जीतने की शक्ति रखता है |
वस्तुतः यही जीवन का सार भी है हम जीवन की सारी सुविधाएं सारी उपलब्धियां और सम्पूर्ण श्रेष्ठता की चाहना करते रहते है हमारी इच्छा यही रहती है कि हमें अमृत्व प्राप्त हो जबकि हम यह भूल जाते है कि जीवन का एक मात्र लक्ष्य परम शान्ति की खोज ही तो है, हम अपनी समस्याओं के जाल में फंसे स्वयं का आकलन ही नहीं कर पाते परिणाम केवल यह समझ पाते है की हम अमुक नाम से अमुक सम्बन्ध में अमुक स्थान से सम्बंधित कोई व्यक्ति है और हमारा कुल परिवेश केवल उस परिवार या समाज से ही सम्बंधित है | जबकि हमारा अस्तित्व उस परम तत्त्व का एक अंश होता है जिससे महा शक्ति का संचालन किया जा सकता है शर्त यह कि हम स्वयं की शक्ति और परम शक्ति के संचालन की विधि समझ पाएं |
हमारे दुःख का कारण केवल यह नहीं कि हम पर क्या क्या है ,बल्कि हम इससे दुखी है कि हम चाहते क्या है ,यही नहीं समझ पाते , हमारे संबंधों में वह प्रतियोगिता है जो हमें मानसिक रूप से छोटा सिद्ध करती रहती है ,हम न तो स्वयं को समझ पाते है न ही दूसरों को, सदैव ईर्ष्या , नकारात्मक भावों में संबंधों का आंकलन करते रहते है परिणाम यह की कि हमारे दुखों का कारण हमारी उपलब्धियां नहीं वरन हमारे भ्रम है हम जिन स्थितियों से अनभिज्ञ है उनसे अपने को डरा हुआ पाते है और उनकी तैयारी में अपने वर्तमान के कर्मों को ख़राब कर रहे जो हमें ही भविष्य में परिणाम रूप में हमें ही प्राप्त होने वाले है |
सारतः यह कि हम जिन से स्वयं को अनभिज्ञ पाते है बस उन्हीं उन्हीं से सबसे अधिक भयाक्रांत होते है ,हमारे भय का कारण यह है कि हम भविष्य मे झांक ही नहीं पाते, और निरंतर उसका नकारात्मक अनुमान अनुमान रहते है हम आत्मा को नहीं जानते तो स्वयं को कमजोर मानते रहते है , हम जीवनकी नश्वरता नहीं जानते इसलिए अत्याधिक मोह के वशीभूत रहते है हम सम्बंन्धों के आतंरिक भाव को नहीं समझ पाते इसलिए उन्हें सच्चा समझते रहते है और वस्तुतः हम जीवन में सुख -,दुःख -लाभ हानि, जय -पराजय और अपनत्व तथा दुशमनी की परिभाषा भी अपने हिसाब से ही समझते रहते है परिणाम जीवन दुःख यातना और हार का मायने ही बना रहता है आवश्यकता स्वयं को समझने की थी |
मानवीय चिंतन का अंतिम सत्य पूर्ण संतोष की कामना में निहित है जबकि उसके आधारों को वही मनुष्य जीवन भर समझ ही नहीं पाता है ,भारतीय धर्म के मूल सिद्धांतों के साथ निम्न को प्रयोग में लाइए |
आत्मा शाश्वत अमर और अनादि है उसके मूल स्वरुप को समझते हुए स्वयं की वास्तविक पहिचान से परिचित होने का प्रयत्न कीजिए वहीँ से स्वयं का असल ज्ञान प्राप्त हो पायेगा |
काम -,क्रोध- लोभ -मोह -ईर्ष्या -भय केवल इस बात का संकेत है कि आप जीवन की वास्तविकता से अनभिज्ञ नहीं है क्योकि आप स्वयं इनके साथ नकारात्मक जीवन जी रहे है |
भारतीय धर्म का आधार कर्म का सिद्धांत है अपने ही कर्मों के कारण सुख और दुःख के फेर में पड़े रहते है जबकि सम्पूर्ण जीवन में सुख और दुःख का आधार हमारा आंकलन ही है |
जीवन स्वयं एक महा क्रिया योग है जो मनुष्य के प्रत्येक कर्म का आधार भी है वही मनुष्य के कर्म और उससे बनने वाले भविष्य को निर्धारित करता है उसे ही जीने की कला का नाम जीवन है |
मनुष्य का भय का स्त्रोत है अनभिज्ञता और वह जिसे नहीं जान पाता उससे उसमें नकारात्मकता जन्म लेती है जबकि स्वयं को जानने के बाद वह भय मुक्त हो सकता है |
स्वयं को उस प्रकार रखिये जैसे हम मृत्यु के दरवाजे पर खड़े है और अपने आवश्यक कार्य करने के लिए हमने काल से थोड़ा सा समय पाया है और अब हम स्वयं के कार्यों को पूरा करने में जुटे है , यहाँ आप जो भी कार्य करेंगे वे सब बहुत सोच कर किये जावेंगें ,क्योकि आप मृत्यु और जीवन के किनारे खड़े है |
मनुष्य का अंतिम लक्ष्य मोक्ष की कामना है जबकि उसे जीवन में कई बार जीवन की निर्लिप्तता से यह मोक्ष मिलता रहता है , यदि यही निर्लिप्तता दीर्घ कालिक होकर मनुष्य का स्वभाव बन जाए तो वह पूर्ण मोक्ष की स्थिति में ही स्थिर हो सकता है।
सामजिक व्यवहार के बिंदु पर आप सबको सहज स्नेह करते रहे बस उसे मोह की सीमा तक न लेजाये क्योकि सहज प्रेम और मोह में बहुत बारीक अंतर होता है उसे व्यक्ति विशेष से न जोड़े |
जो तथाकथित प्रेम कुछ क्रियाओं की पूर्ती के के बाद अपना स्वरुप और तीव्रता बदल लेता है जो आपूर्ति के आवेग में किसी नैतिक मूल्य का ध्यान नहीं रख पाता हो और जो सामने वाले से लूटने - जीतने का भाव रखता हो वह तो प्रेम है ही नहीं वह वासना है और वही सबसे बड़ी नकारात्मकता भी है |
जीवन की नश्वरता और आत्मा की शाश्वतता के भेद को जानने वाला जनता है कि जो प्राप्त होने वाला है वह नश्वर है जिनके लिए प्राप्ति होनी है वे सब झूठा है और जो अमरत्व है उसके लिए हम पर कुछ नहीं है |
अन्धकार में एक बर्तन में बहुत सा पानी भर कर लेजाता हुआ कोई व्यक्ति घर पहुँच कर बड़ा दुखी हुआ क्योकि जिस बर्तन में वह बहुत यत्न से पानी भर कर लाया था वह एक बड़ी छलनी थी जिसमे कुछ बचा ही नहीं था अब पश्चाताप कैसा | साधन और सम्बन्ध केवल छलनी में पानी इकठ्ठा करने जैसे विषय थे जो अपने हिस्से में आने ही कहाँ थे |
सम्पूर्ण जीवन को एक साक्षी भाव से आंकलित करने की आवश्यकता है आप स्वयं को ऐसे देखकर आंकलन करते रहें कि आप कहाँ गलत है आपके कर्म कहाँ नकारात्मक हो रहे है और तत्काल उसका प्रायश्चित करके उसे ठीक करें और उसे सकरात्मक कर्म विधा से जोड़े रखें |
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