सुख और दुःख क्या है
प्रशांत बहुत बड़ा वैज्ञानिक था अन्वेषण खोज और मानवीय सेवा के लिए कृत संकल्पित , वेतन बहुत ज्यादा नहीं था, बस पत्नी और पुत्री का काम चल जाता था , पत्नी भी पास के स्कूल में शिक्षिका थी, बच्चे उसके ही विद्यालय में पढ़ते थे , पैतृक घर से भी आवश्यक सहयोग समय समय पर मिलता रहता था , कहने का मतलब यह की परिवार संतोष जनक स्थिति में अपना काम चला रहा था , और यदाकदा पड़ने वाले कामों के लिए बचत भी खूब कर ली जाती थी, पैतृक मकान में निवास करते थे वे सब लोग , पैतृक मकान अब विकसित क्षेत्र में आने लगा था, बाजार माल और नए और बड़े निर्माणों ने घर चारों और से घेर लिया था ,नयी बड़ी बड़ी गाड़ियों में अत्याधिक सजी धजी युवतियां लंबी लंबी गाड़ियों से निकलने लगी, और इन सबको देख कर प्रशांत के मन में कुछ दिनों से मन में एक हीन भावना घर करनेलगी थीं ,अब हर घटना को वो गरीबी , अभावों , दुःख दर्द और तिरस्कार की नजर से देखने लगा ,अपना घर अपनी उपलब्धियां अपनी आय उसे दुःख का कारण दिखाई देने लगी, सम्पूर्ण घर के परिवेश को आक्रोश अशांति और नकारात्मकता से भर कर खड़ा हो गया वह ,शान्ति सहयोग और सुख की पराकाष्ठा पर रहने वाला परिवार अचानक बिखरने के कगार पर आगया |
एक दिन नैराश्य के महा सागर में डूबते हुए उसने पास बहती हुई नदी में छलांग लगा दी ,पेशन , और सारे लाभों का अधिकार पत्नी को देने को लिख भी गया था वह |२.६ वर्ष बाद प्रशांत को जब कुछ याद आया तो उसने स्वयं को एक जंगली कबीले के रहवासियों के साथ खूब प्रसन्न पाया स्वयं को वह तंदुरुस्त दिखाई पड़ा, गौर वर्ण चिकनी मांसल देह और केवल एक लंगोटी पहने हुए , पूर्व की तुलना में लगभग २० किलो वजन बढ गया था, उसे कबीले के सरदार ने बताया आपको गहरी बेहोशी की हालात में हमने नदी से निकाला, कबाइलियों ने चिकित्सा की , ओझाओं ने खून रस पेड़ पत्तियों के रस काढ़े और गोबर ,मिट्टी और लेपों से निरंतर इलाज किया गया ,मालिश ,लेप और दुआओं से आप जल्दी ही ठीक होगये ,ओझाओं ने बताया की आप भगवान् के भेजे हुए दूत है ,तब से आपको कबीले के मुखिया के यहाँ ही रखा गया, निरंतर सेवा में पूरा कबीला एक रहा है , इस २. वषों में आपको कोई नहीं हरा पाया ,आपने बड़े बड़े वीरों को हरा कर हमे बड़ी जीतें दिलाई है , आप बेहद खुश , प्रसन्न और ज़िंदा दिली से रहने वाले रहें है ,आज ऐसा लगता है की आपको याददाश्त याद आने के साथ वो नैसर्गिक प्रसन्नता चिंता की लकीरों में बदलते देखा है हमने,
प्रशांत ने स्वयं को कबीले का सरदार और एक बड़े साम्राज्य का सम्राट मान कर गौरवान्वित समझा ,आज पूरा कबीला उसके सामने नत मस्तक खड़ा था , प्रशांत को सुख दुःख और उनके उद्भव बिंदु का सहज ही पता चल गया था वह जान गया था सुख और दुःख केवल कल्पनाओं के सहारे बढ़ने और घटने वाले सत्य है , घोर यातना और नाकारात्मकताएं यह बताने को पर्याप्त होती है कि कहीं पास ही सहज सुरम्य और सुखद समय के आने की आहाट पास है है |
दुःख और सुख तो हमारी चेतना की सकारात्मकता और नकारात्मकता की सोच का नाम है महान उपलब्धि को भी यदि आपने नकारात्मक परिवेश में सोचना आरम्भ किया तो वह अपना स्वाभाव बदलकर नकारात्मक प्रभाव देने लगती है और सकारात्मक चेतना में यद्ध की हार भी जीत की और एक सशक्त प्रायास मान लिया जाता है , शरीर मन बुद्धि के अनुसार दूसरों की तुक्ष्छ उपलब्धियों को हम बड़ा मान बैठते है, औरस्वयं की बड़ी बड़ी सफलताओं को नकारात्मक भाव से असफल सिद्ध करने में लग जाते है ,फिर कैसे सुख पैदा हो पायेगा ,और कैसे जीवन की सुगंध तुम्हे सुवासित कर पायेगी
भौतिक संसाधनों के ढेर पर बैठा आदमी स्वयं को इतनी बड़ी बड़ी आकांक्षाओं , कामनाओं औरसंसाधनों की लूट में फंसा लेता है, जहां उसके हर प्रायास से प्राप्त उपलब्धियां छोटी दिखने लगती है, और और का भाव और प्रबल होकर खुद को ही तुच्छ साबित करने लगता है, है और उसे ही हम दुःख मानने की भूल कर बैठते है , महत्व पूर्ण बात यह कि जो है ही नहीं ,उसकी कल्पना में वर्त्तमान के सुखों को छोटा बताने वाली पृवृत्ति, भी हमारे दुःख का एक बड़ा कारण है ,और इसे हम सुख और दुःख की परिभाषा में रखने का प्रयत्न करते रहते है, जबकि इसका सुख और दुःख से कोई मतलब ही नहीं है|
अंतर्मुखी भाव जबतक आत्मा को अपने स्वरुप में जानकार प्राप्त उपलब्धियों में संतुष्ट प्रसन्न रहता है ,तब तक उसकी चेतना शांत शून्य और परम आनंद के भाव को बनाये रखने में सफल रहती है ,और जैसे ही वह बाह्य जगत के भौतिक संसाधनों से अपनी तुलना और कामनाएं करने लगता है ,वैसे ही उसके तमाम सुख संतोष और आनंद का क्षय स्वतः हो जाता है |
तुलना का आधार दुःख का सबसे बड़ा कारण है वह एक और अपनी उपलब्धियों को नगण्य साबित करने लगता है ,वही दूसरी और दूसरों की उपलब्धियों का आंकलन स्वयं के द्वेष जलन और तमाम नकारात्मकताओं के साथ करने लगता है, परिणाम फिर जैसे जैसे दूसरों का विकास विस्तार और वैभव की वृद्धि होती है, वैसे वैसे आत्मा का असंतोष और अधिक बढ़ने लगता है ,और इसप्रकार धीरे धीरे उसके पास केवल इतनी नकारात्मकता शेष रहजाती है जिसमे उसका तमाम अस्तित्व केवल तुलना -नकारात्मकता -और कभी न ख़त्म होने वाली हार का मायने बना बैठा रहजाता है , उसका दूसरों पर ही नहीं स्वयं पर भी विश्वास नहीं रह पाता ,वह स्वयं नकारात्मक भाव बन कर रहजाता है |
आदमी बड़ा विचित्र प्राणी है वह स्वयं को प्रमाणित करने के लिए तमाम काल्पनिक स्थितियों का निर्माण स्वयं करलेता है है एवं समयानुसार स्वयं को सहानुभूति का पात्र बना लेता है , वह सामान्य जीवन में ही स्वयं को बेचारा निरीह और आश्रय हीन बताकर सबसे ढेरों सहानुभूति अर्जित करता रहता है , धीरे धीरे उसकी सम्पूर्ण गतिशीलता ख़त्म होने लगती है , जीवन उसे निरीह बेचारा बेबस और नाकारा सिद्ध करने लगता है , हम अपने बल पौरुष और सम्पूर्ण शक्तियों को भूल कर स्वयं को बेचारा और निरीह बना बैठते है ,परिणाम हमारा अस्तित्व दया का पात्र बना एक भिखारी की तरह हो जाता है ,जिसमे संतोष और परम आनंद की शांति कहाँ है , आप झूठ फरेब शोषण और नाकारा होकर कैसे स्वयंम को श्रेष्ठ साबित कर सकेंगे यह प्रश्न चिन्ह है | यहाँ यह और महत्व पूर्ण है जबतक आप समाज से स्वयं को बेचारा नाकारा और कमतर सिद्ध करेंगे, वह आपके साथ सहानुभूति दिखायेगा, और जैसे ही आप अपनी शक्ति से उसके बराबर खड़े हो जाएंगे, वह प्रतिद्वंदी होकर आपको हराने और मिटाने में लग जाएगा |
दुःख तो चिंतन के आयाम ही है न ,भिखारी के पास आया १००० का नोट या एक सोने का टुकड़ा बहुत बड़ी खुशी का विषय है, धनवान के लिए वह तनिक सुख हो सकता है ,तुम अपने किसी मित्रके साथ समय गुजारों उसे सुख मानते हो , अपनी मनमर्जी से स्वछंदता से किये कार्यों को सुख मानते हो ,या आपका अस्तित्व झूठ फरेब और अपनी मर्जी के ऐशो आराम तथा अनियंत्रित स्वच्छन्दता को सुख मानते हो , जबकि वह किसी और की नकारात्मकता का कारण हो सकता है ,परंतु आपतो उसे सुख और अधिकार मानते है , भिखारी का दुःख है उसके पास कुछ नहीं है उसे वो मिलजाए ,धनवान चिंतित है कही उसका धन चला न जाए,यानि कि सुख और दुःख गुजरते समय के वो आंकलन है जिसको समय ही सिद्ध कर सकता है, परन्तु समय ये डोर किसी एक को देने कोतैयार नहीं रहता समय काल और परिस्तिथि के साथ आज ये आपका है कल वह और किसी का होगा |
मित्रों हम शरीर, मन , और बाह्य संसाधनों में जो बुद्धि से चाहते है उसे सुख और जो नहीं चाहते उसे दुःख कहते है , , एक पुत्र अपने पिता की मृत्यु को दुःख मानता है ,दूसरा उसकी संपत्ति पर अधिकार के लिएमृत्यु को सुख मान बैठता है ,,एक संपत्ति क्षय को दुःख मानता है दूसरा उसे लुटाते हुए सुख का अनुभव करता है ,एक सबके लिए जीकर खुद को सुखी समझता है दूसरा स्वार्थों के सहारे सुख बटोरना चाहता है ,एक मान दंड पर परीक्षा दे कर सुखी होता है ,दूसरा उसकी अवहेलना कर यह कहकर सुखी कि वो इतना महान नहीं है ,कहने का आशय यह कि हम बाह्य तत्वों की उपलब्धि, झूठे संबंधों की प्राप्तियों को ही सुख मान बैठे है बैठे है ,जिसका सुख और दुःख से कोई सम्बन्ध ही नहीं है |
तुमने लाखों कपडे पहने उतारे और फेंक दिए , वस्तुएं तो वस्तुएं तुमने इंसानों को भी वस्तु की तरह प्रयोग कर फेक दिया और तुम जीवन भर यही सोचते रहे ,दूसरों से बटोरे सुख से तुम परम आनंद तक पहुँच जाओगे ,मगर तुम जिसे लूटकर आगे बढे ,वह भी तुमसे तुम्हारा चरित्र , व्यक्तित्व सत्य और उसकी पूर्ण चेतना छीन ले गया, परिणाम तुम्हारी दशा उस महान सम्राट जैसी हुई ,जिसने अनगिनत खाजाने लूटने के बाद भी रेगिस्तान की आंधी में एक लावारिस की तरह जान देदी , जिसे सामान्य आदमी जैसा कफ़न भी नसीब नहीं हुआ अआप अधिक सुख की खोज में अपने को अँधेरे गड्ढे में दफ़न करने की साजिश कररहे है आप ।
जो सुख दूसरों पर आधारित हुआ उससे तुम्हे केवल दुःख ही मिल सकता है हम समाज में खड़े एक दुसरे से प्रेम सुख और समृद्धि मांग रहे है मगर हमपर किसी पर भी वह है ही नहीं ,हम भिखारियों की तरह स्वयं को बादशाह बताने की चेष्टा कररहे है,जिसपर सुख है ही नहीं वो ,आपको क्या दे सकता है ,जो एक बार परम चेतना से सुख का मायने समझ जाता है तो ,सुख की मांग ही ख़त्म होजाती है , फिर उस महासागर से आप कितना भी सुख प्राप्त करो उससे उसकी स्थिति में कोई अंतर ही नहीं पड़ता ,अतः सुख सत्य और पवित्र चेतना का आधार बनाओ खुद को, जो दूसरों को भी प्रकाशित कर सके |
भारतीय दर्शन कहता है की एक पूर्ण चेतना हमारे सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है और उसी परम शक्तिशाली चेतना का सूक्ष्म बिंदु हमारी चेतना में भी व्याप्त है , हम बाह्य सुखों के भ्रमजाल में उस चेतना का ध्यान ही नहीं कर पाते परिणाम जीवन स्वयं नष्ट भ्रष्ट होकर कई जन्मों तक अपनी शान्ति और परम आनंद की खोज में भटकता रहता है ,स्वयं की परम चेतना के साथ जिसने ब्रह्मांडीय चेतना को एक कर कर लिया ,वही मुक्त होकर परम आनंद का मायने बन पाया है ,जिसे सहजता , अंतर्मन की जिज्ञासाएं और सत्य का अनुभव है ,वही सबकी सुख की कामनाओं में स्वयं को एकाग्र कर के जीवन की चेतना आनंद और परम रहस्य को पा सकता है, और वही मानव जीवन का लक्ष्य भी है
निम्न का प्रयोग आपको अपने सत्य तक ले जाएगा
सुख का सच्चा अर्थ शारीरिक मानसिक आपूर्तियों का मायने नहीं अपितु मनुष्य जीवन के मूल उद्देश्य की प्राप्ति आपको वास्तविक सुख तक लेजा सकती है |
निश्चित और अवश्यम्भावी घटनाये दुःख का कारण नहीं वरन परिवर्तन है , और यह दुःख का कारण न होकर नयी सृष्टि के लिए आवश्यक भी है |
जीवन मृत्यु विवाह जन्म ये सब कुछ संस्कार है इनके बाद और भी संस्कार अस्तित्व में आने वाले है तो ये सब सुख दुःख के कारक नहीं हो सकते |
सच्चा दुःख है अशिक्षित विद्यार्थी , कंजूस और लालची धनवान , योगी में ज्ञान की अल्पता , अपने जीवन में लक्ष्य तक न पहुँच पाना , और दूसरो का शोषण जो आपके भाग्य का निर्माण करेगा |
विषयों और भूख को और अपनी बेलगाम स्वच्छंदता को सुख न समझे, क्योकि यह बार बार अपनी अगली मांग के साथ यह आपको कमजोर और बीमार बनाता जाएगा |
अत्याधिक सुख की कामनाएं करने का स्वाभाव भी एक बड़ी बीमारी है, जिसका इलाज आपको ही करना होगा क्योकि यहीं से आपको असंतोष पैदा होता है |
वे सम्पूर्ण आपूर्तियां जो थोड़े ही समय में फिर आपूर्ति चाहने लगती है वे सब बंधन है, उनकी सीमा तय करके प्रयोग करने से ही आप स्वयं को जीत सकते है |
हम जिसे सुख कहरहे है उसका सुख से कोई लेना देना ही नहीं है क्षणिक सुख और हम जो चाहते है हम केवल उसे सुख मानते है जबकि स्वयं की एकाग्रता का भाव जिसमे स्वयं को विराट में एकाग्र कर सके वही परम सुख है |
स्वयं के चिंतन और शरीर को साधने के लिए स्वयं को एकाग्र करें और उसे अपने आनंद एवम भविष्य के प्रयासों में लगादे परिणाम अधिक सफलता देंगे |
मन बुद्धि आत्मा के साक्षात्कार के बाद अपनी चेतना को परम चेतना में शामिल होते देखने का स्वप्न देखे फिर संकल्प करें की चेतना को परम चेतना का द्वार मिल गया है आपकी सुख की यही सीढ़ी आपको अपना लक्ष्य देदेगी |
जीवन तो एक ऐसा अथाह सागर था जिसमे भिखारी की भांति भटकते हुए अनायास ही मुझे बड़ा खाजाना मिलगया क्योकि मेरे लाख प्रयत्न के बाद भी मेरी गरीबी ख़त्म हुई नहीं अंत में मैंने अपने कर्तव्यों के साथ स्वयं को उस परमात्मा के सहारे छोड़ दिया , सत्य सहजता और कर्म के बदले सहजता में परमात्मा ने मुझे अथाह खजाना दे डाला जबकि मेरे सुख को अब उस खजाने की भी जरूरत नहीं थी
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