सफलता का मूल मंत्र है स्वयं का साक्षी भाव

self witness is basic mantra of success

मेरा जन्म राजिस्थान के बहुत बड़े राज घराने में हुआ था हजारों नॉकर चाकर दास -दासियाँ और बड़े बड़े राज प्रासाद थे मुझ पर ,रोज बहुत बड़े बड़े कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था , सुन्दर अति योग्य नृत्यकियॉं अपनी  अपनी कला को ऐसे जीती थी जैसे भगवान् ने उनको सीधा कला के सारे मानदंड देकर पैदा कर दिया हो , युद्ध , वीरता , पुरूस्कार सजा और आक्रमण तथा बंदी बनाकर फांसी क़त्ल और खजाने लूटते लूटते हम सब अपनी आधार भूत दया ,करुणा और अपरिग्रह जैसे शब्दों से काफी दूर निकल आये थे| 

 हर अच्छी लगने वाली चीज लूट ली जाए , हर ख़ूबसूरत वस्तु उनकी अपनी हो और न्याय का आशय वो हो जो हमे अच्छा लगे , इन्ही संस्कारों में पला बढा मैं एक निरंकुश ,विलासी बाद दिमाग और खुद को सर्व शक्तिमान मानने वाला था ,मैं राजा का एक मात्र पुत्र था, एक बार एक युद्ध में मुझे भी जाना पड़ा ,बड़ी वीरता और शौर्य से लड़ी मैंने अपनी लड़ाई और युद्ध जीत कर घर लौटा , सारे राज्य में बड़ी खुशियां मनाई गई और शराब के नशे में  मैं अचानक एक हाथी से फिसल गया  और जबतक संभल पाता कि  एक हाथी के पाँव से चोटिल होगया ,पूरा बदन दर्द से भर गया, मालूम यह हुआ की मेरा कमर से नीचे का बदन सुन्न हो गया है , वैद्य  हकीम दुआ करने वाले पूजा करने वाले सब लगे थे , कही से तो कुछ अंतर आजाये ,मगर सब बेकार हुआ ,मैं  एक अपाहिज की तरह महल के एक कौन में डाल दिया गया , पिता को सलाह दी गई की आप दूसरी शादी करके वंश बढ़ाये काफी कुछ  ना हां करके वो तैयार होगये | समय बढ़ता गया अब तो दो वर्ष भी होगये थे मुझे अपनी हालात पर रोते रोते , बेहद कमजोर ,लाचार और अपनी मौत को पल पल जीता  हुआ मैं | 

अपने अकेले कमरेमे अलग अलग भाव, मेरे दुश्मन बन गए थे, कभी मुझे लगता की मुझे खुश करने में असमर्थ एक ख़ूबसूरत दासी को पिता ने दंड स्वरुप हाथी के पैर  से कुचलवा दिया ,हजारों दास - दासियों को अपनी हवस में हमने फांसी चढ़ावा दीथी  ,अनेक वीरों को बहुत अच्छा प्रदर्शन करता देख मैंने अपने हाथों मौत के घात उतार दिया था ,क्योकि वे मुझसे अधिक वीर थे , हर अच्छी चीज का उपयोग मैं  ही करूँ ,इस हविश ने मुझे एक क़ातिल ,दुरा चारी  और सिरफिरे राजकुमार की तरह पेश कर दिया था ,और मैं  इससे भी अधिक आतातायी की शक़्ल  में नजर आने लगा था खुद को | 

डॉक्टर वैद्य हकीमों ने सारी आशाएं छोड़ दी थी ,दासियाँ दास सेवक सेवा में लगे थे, मगर कोई ज्यादा फर्क दिखाई नहीं देता था ,   एक परिवर्तन था  कि खाना प्रतिबंधित था , शराब मांस ,गरिष्ट भोजन बंद हो गया था और दुनिया के सारे भगवान् मुझे अपनी और आकृष्ट कररहे थे ,आत्मा का साक्षी भाव  अंतिम समय देख कर पूर्ण रूपेण जाग चूका था , हर कर्म की सजा जीवन के इस रूप में देखते देखते मैं थक गया था , मैं  अपने दुष्कर्मों का एक मात्र गवाह  बना ,अपने दुष्कर्मों का प्रायश्चित कररहा था ,दिन ब दिन  अपने कर्मों से घृणा और अपने कर्मों की सीढ़ी पर चढ़ कर देखने पर अगला भविष्य मुझे बड़ा अन्धकार मय  दिखाई दे रहा था ,अब  मैं स्वयंका हर कर्त्तव्य पर आंकलन कररहा था ,कि अब कोई भूल न हो हर वक्त अपना मूल्यांकन करते   हुए मन बार बार अपने किये  पर रुआंसा हो जाता था, कई कसमें खाता था क्षमा मांगता था,मगर अब क्या॥ 

एक दिन एक फ़क़ीर राजा से आज्ञा मांग कर  मेरे पास पहुंचा ,वह मुझसे बोला  कि 
 पुत्र ईश्वर क्या है  --- मैंने कहा सत्कर्म और आदर्श ,
 वो बोला दुष्कर्म क्या है मैंने कहा वो तो अकाट्य भोग्य है  ,जिसे सबको भुगतना है ,
 उसने कहा जीवनक्या है ,मैंने  कहा  स्वयं को सिद्ध करने का माध्यम है , 
उसने कहा फिर भ्रम क्या था ,मैंने कहा लालच , जीवन को न समझ पाना और खुद को अमर समझना ही भ्रम था , उसने कहा कि सर्व शक्तिमान कौन है मैंने कहा  ईश्वर , खुदा ,और प्रकृति,और  आत्मा तथा  सकारात्मक भाव ,
 उसने  पूछा मैं ईश्वर को नहीं मानता, तो किसको मानूँ सबसे शक्तिशाली ,मैंने कहा हे देव आप अपने कर्म सकारात्मक भाव , और अपने उस साक्षी भाव को  ईश्वर मानते है और हर पल उसमे ही विद्यमान है वही ईश्वर है और उसके लिए सब कुछ संभव है , 
साधु हंसा और बोला पिछले२ वर्षों   में तुमने जीवन का क्या अनुभव सीखा ,मैंने कहा  देव ऐसा लगा कि मैं  एक राक्षस योनि से निकालकर ,देव योनि में आगया हूँ ,और अपने दुष्कर्मों के साथ मारने जा रहा हूँ 
 साधु में स्वयं को कैसे और किस विधि से जागृत किया जा सकता है , मैंने कहा वह  साक्षी भाव है  ,जिसके निरंतर चिंतन से मैं इस सोच तक आया हूँ ,
साधु ने कहा  पुत्र ठीक है मैं  भी तुम्हारे साक्षी भाव में तुम्हे बचाने की आर्त नाद सुनकर आयाहूं , यह कहकर साधु ने मुझे एक पाउडर दिया कड़वा ,मेरे पूरे शरीर में कपकपाहट पैदा हो गई ,साधु ने चिल्लाकर कहा उठो और दरवाजा खोलो , मैं  कापते हुए उठा और दरवाजा खोल दिया, साधु ने कहाअब तुम ठीक हो गए हो पुत्र, इस साक्षी भाव के साथ ही जीना ,कि  परमात्मा हर पल तुम्हारे साथ तुम्हारा आंकलन कररहा है ,यह कहकर साधू चला गया ,और मैं  एक कुशल शासक बना जीवन की हर स्थिति भाव से अपने साक्षी भाव के साथ जीवित हूँ, हर पल की सजगता के साथ, कि कहीं कोई कर्म मुझे असफल  सिद्ध न कर दे || 

जीवन को जीकर राम, कृष्ण  ने यह सिद्ध कर दिया, की यदि आदर्शों के  शिखर पर अपने मानदंड बनादिये जाए तो इंसान भी स्वयं ईश्वर बन सकता है , यहाँ जीवन का वह भाव काम करता है ,जिसे परमार्थ की तराजू ने सबसे ऊपर तौला है, वह तो यही सीखा पाया कि, आप जितना सुखी और प्रसन्न रहना चाहते हो, आप दूसरों को उतना ही प्रसन्नकरना सीखिये ,अन्यथा आप स्वयं की स्वयं से दौड़ में भी हार जायेगे, क्योकि आपकी आत्मा ही सिद्ध कर देगी कि आप यह रेस हार चुके है | क्योकि जब भी मैं  कुछ करता हूँ ,मेरा साक्षी भाव निर्णायक होकर मुझ पर अपना फैसला सुना देता है ,हो सकता है कि तात्कालिक स्थिति में वह फैसला  मुझे सुनाई न दे, मगर एक दिन वह अपनी सत्यता के साथ मेरा ही भोग्य बन कर मुझे मिल जाता है | 

 

 जीने का तरीका ही हमे सुख दुःख जय पराजय और दुःख और तमाम नकारात्मकताओं के द्वार पर लेजाकर खड़ा करदेता है हमारे सामने सफलताएं  खड़ी हमारा इंतज़ार कररही होती है और हम  उनका ध्यान ही नहीं रखपाते क्योकि जीवन की प्राथमिकताएं  ही हम ध्यान में नहीं रख पाते , जीवन के बाह्य तत्वों पर ही उलझ कर सत्य को पूर्णतः भुला देते है हमारे सामने झूठे संबंद्ध , शारीरिक आपूर्तियां , भौतिक संसाधन , और कैसे भी जो अच्छा लगा वो छीनने की पृवृत्ति इतनी प्रबल होती है की हम केवल स्वयं तक सीमित होकर रह जाते है , हमारा अपना मन आत्मा और आदर्शों का यहाँ तो सवाल ही नहीं उठता , कालांतर में जब , जीवन अपने उत्तरार्ध को जाने को होता है तब हर कर्म आपसे  अपना औचित्य प्रश्न दागता है , परन्तु जीवन पर कुछ होता ही नहीं है उत्तर के रूप में , क्योकि वह अगले जन्म में भी अपने साक्षी भाव से दूर जन्म लेता ररहेगा  रहेगा किन्तु कभी उस सत्य तक नहीं पहुँच पायेगा जिसके लिए उसने जन्म लिया था ,यदा -कदा जीवन आप्टे कठोर ठोकरों से इस भाव को अवश्य समझा देता है | 


जीवन के समक्ष बहुत सारी  उपलब्धियां है ,कुछ बेस्वाद , बेरंग,  भाव शून्य सत्य है ,जो बताते है कि यही जीवन का वास्तविक सत्य है ,जिसमें आपको ही रंग भरने है मगर दूसरी ओर  रंग ,मस्ती,  वासनाएं , राग ,द्वेष, और विलासिताओंका साम्राज्य है नशीली भाव भंगिमाएं है रूप ,सौंदर्य ,  काम- क्रोध -लोभ- मोह  मत्सर और अनगिनत विमोहित करने वाले विषय बिखरे पड़े है तो ऐसे में सत्य आदर्श और शून्य ता का प्रश्न ही कहा है, यहाँ तो संसार को पूर्ण भाव से जानने का भाव का मतलब है संसार का जितना उपयोग हो करलें , जीवन पर उसका ही अधिकार है और यही उसका चिरंजीवी भविष्य है , जबकि इसमें कुछ भी सत्य है ही नहीं ,जब वासनाओं , काम क्रोध मोह लोभ के तूफ़ान उतार पर होते है तब जीवन शेष ही कहाँ होता है  वहां तो जाता हुआ समय सबकुछ में एक ऐसी आग लगा कर जाता है जिसका पश्चाताप का धुंआ देर तक धधकता रहता है , और जीवन अपनी गलतियों को अपने साक्षी भाव से देखता रहता है | 


 भाव का आशय है अपने  हर कर्त्तव्य  क्रियान्वयन और जीवन की गति पर पैनी नजर बनाये रखें , हर पल हर घड़ी एक नए क्रियान्वयन की मांग करता है मन अपनी आपूर्तियों  की और सोचता है और आत्मा अपने सत्य और उसके परिणामों का भय दिखाती है , भावा वेश में कभी मन जीतता है तो आत्मा बिना समय गवाये उसे आरोपी सिद्ध कर देती है और 
  जैसे ही वह आदर्श कार्यों में आती है वह उसे प्रोत्साहित करती है इतना प्रोत्साहन जिसे दुनिया की किसी चीज से नही खरीद जा सकेगा , इसी लिए  नानक, महावीर , रामतीर्थ विवेक नन्द अरस्तु , टालस्टाय ,ईसा मोहम्मद , साईं और अनगिनत ऐसे संत फ़कीर हुए जिन्होंने स्वयं को साक्षी भाव के बंधन से इतना अच्छीतरह बाँध लिया था कि  वे स्वयं ईश्वर होगये ,क्योकि उनका साक्षी भाव उन्हें जिस दिशा में कर्त्तव्य के लिए प्रेरित करता रहा जिस ओर कोई भूला भटक ही जा पाता है, और यही उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि भी थी | 


इन सबका भी प्रयोग करके देखें 


कर्म के दो भाग है प्रथम शरीर के लिए और दूसरा आत्मा के लिए ,ध्यान रहे कि   आप  न तो शरीर है, न ही आप मन है, जो आपको देख रहा है, निरंतर आपका आंकलन कररहा है, वह  अलग है ,जो आपको जन्मते मरते और उसके बाद भी देखता रहता है उसकी उपस्थिति को महसूस कीजिये ,की वह आपके हर कर्त्तव्य में साथ है | 
 
आपको स्वयम को सिद्ध करने के लिए भेजा गया है न कि  खो जाने के लिए आप यदि अपना लक्ष्य भूल कर दुनियां की रंग बिरंगी मृग मरीचिकाओं में उलझे रह गए तो निसंदेह आपको पश्चाताप करना होगा 
सुबह से शाम तक अपने किये हर कार्य का आंकलन करें , सांसारिक भोग्य का प्रयोग उतना ही हो जितना आवश्यक है , उसके बाद अपने पूर्ण लक्ष्य के लिए स्वयं पर नजर रखें।

संकल्प की साधना में आपका साक्षी भाव एकमात्र साधन है जो उसे पूर्ण या अपूर्ण कर सकता है क्योकि वही आपको स्वयं के बंधन में बांधने में सक्षम है | 

साधना एकाग्रता और संकल्प आपके साक्षी भाव का ही नाम है आप जब संकल्प को अपनी अंतरात्मा के सामने रखकर समय  बद्ध  आकलन करने लगते है तब साक्षी भाव अपना थोड़ा सा सहारा देता अवश्य है | 

ध्यान रहे साक्षी भाव  में न तो दुःख होता है न सुख होता है वह तो एक अडिग न्यायाधीश की तरह  स्थिर अडिग निष्प्रभावी भाव से हर पहलू का निर्णय करता रहता है यह बिना जाने की वह आपको अच्छा लगा या बुरा | 

आप सतत स्वयं के साक्षी भाव की निगरानी में है जो आपके  सी सी  टीवी कैमरा से हजारों गुना परिष्कृत है जो आगे के भाव और सोच की सकारात्मकता और नकारात्मकता का भी बखूबी से आंकलन कर देता है | 

स्वयं के साक्षी भाव को इतना प्रबल बनाएं कि आपके व्यक्तित्व की सारी नाकारात्मकताएं उसके सामने अपना अस्तित्व खोने लगें ध्यान रहे यही अभ्यास आपको एक दिन उच्च शिखर पर लेजायेगा | 

आपको केवल अपने साक्षी भाव पर नजर रखने की आवश्यकता है जैसे कोई हर पल आपकी निगरानी कररहा है अच्छा बुरा  जैसा भी कुछ है वो देख रहा है निर्णय अवश्य देगा बिना प्रभावित हुए | 

आपका साक्षी भाव आपको प्रसंशा दे ने लगे तो आप निश्चित समझिये की आपको दुनियां की सबसे अनमोल  सौगात प्राप्त हो गई है क्योंकि जीवन का परम संतोष साक्षी भाव के सकारात्मक होने में ही है| 

 मनुष्य के जन्म से पहले और मृत्यु केबाद तक उसका साक्षी भाव जागृत रहता है वह आपके सीसीटीवी कैमरों से लाखोंगुना परिष्कृत है जो आपके अतीत की हर कर्म की सजा और भविष्य की चेतना को कर्म से पूर्व ही चेतावनी देने लगती है , एक बार आपने इसकी उपस्थिति को पहिचान लिया तो सच मानिये आपको समय ऐसा ही सिद्ध करदेगा जैसे सफलता के हर मान दंड भगवान् ने आपके लिए ही बनाये हों

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