आदमी अपने से अधिक दूसरों की समस्या से परेशान है

भगवद्गीता
पुत्र स्त्री धन और घर में आसक्ति का अभाव,ममता न होना तथा प्रिय और अप्रिय  की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना और विषयासक्त लोगो में प्रेम न  होना ये सब ही ग्यानी का सच्चिदानंद स्वरुप का सार है |
 
गीता के  इन श्लोकों में जीवन का वो दर्शन है जो आम आदमी को यह बताने में सक्षम है की समस्याओं का स्त्रोत दूसरा नहीं हम स्वयं है ,मोह  की अधिकता को आसक्ति के रूप में जब अपना जाल फैलाती है तो हर आदमी को  हम  अपने हिसाब से कार्य करता देखना चाहते है ,उसके मन मष्तिष्क पर स्वयं अपना आधिपत्य देखना चाहता है मन , संसार पर आधिपत्य करने का मन स्वयं अपने आपको बहुत बड़ा और अजेय मानने लगता है और इन सबके बीच स्वयं का विकास शून्य और दूसरे का चिंतन सौ प्रतिशत चलने लगता है परिणाम यह कि व्यक्ति की स्वयं की शांति नष्ट भ्रष्ट हो जाती है ,और जीवन का मूल उद्देश्य उस जीवात्मा  को न्याय नहीं दे पाता  जो उसकी प्राथमिक आवश्यकता थी ,संसार में  अनगिनत  समस्याएँ और सुविधाएं है और आपके जीवन की परम शांति केवल स्वयं के आकलन और आदर्श व्यवहार में है
 
एक  बहुत बड़े  आश्रम में एक संत रहते थे बहुत वैभव था आश्रम में सारी आधुनिक सुविधाएं ,गाड़िया ,बगीचे चमकीले वस्त्र और वह सब कुछ जो आजके आधुनिक संत को  सिद्ध बाबा बनाने के लिए आवश्यक होता है लाखों लोगो की भीड़ में बाबा ब्रह्म ज्ञान की सीख दे रहे थे सब बाबा के ब्रह्म ज्ञान से प्रभावित होकर गहने पैसे अर्पण कर रहे थे बाबा बड़े ध्यान से देख रहे थे हजार रुपये वाले को फल और आशीर्वाद भी देते जा रहे थे , बाबा  से अनायास एक युवा ने प्रश्न किया असल में आपका नाम क्या है बाबा बोले  सच्चिदानंद युवा बोला हाँ  आपको देश के  बड़े नेता अभिनेता सब इज्जत देते है, आपने क्या नाम बताया महाराज बाबा रूखे स्वर में बोले सचििदानन्द ,हाँ  महाराज अनेक राष्ट्रअध्यक्ष , और विश्व के अभिनेता आपके शिष्य है ,क्या नाम बताया आपने बाबा अपना क्रोध संभाल नहीं पाये बोले अरे कमीन  कहा न सच्चिदानंद और बाबा ने तमाम गालियां  देने लगे एक डंडा लेकर भागे उसके पीछे ,उनके शिष्य पेशेवर गुंडों की तरह धक्का देने लगे  युवा पत्रकार समझ गया  कि  बाबा का नाम  सच्चिदानंद ही है । उसके सामने  सत् +चित्त +आनंद  और  ब्रह्म ज्ञान दोनो समझ आ गया था ,वह जान गया कि केवल बाबा दूसरों की स्थिति से जुड़ पाये है अपने आत्म तत्त्व का ज्ञान है ही कहाँ  उनपर | 
 
माता, पिता ,भाई  बहिन ,पत्नी  बच्चे और आपका समाज आपके मित्र और संसार का हर सम्बन्ध आप नहीं हो  आपका जन्म अकेले हुआ था अकेले ही आपको जाना है और अकेले ही आपको अपने मन  बुद्धि और ज्ञानका सुख और दुःख भोगना है , तुलसी ने इसी लिए स्पष्ट किया कि
कोउ  न काहुँ सुख दुःख कर दाता ॥ निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ॥
कहने का आशय यह कि यह जीवन न तो दूसरों के दुःख के कारण दुखी है न उनके सुख के कारण  सुखी है  ,सत्य तो यह है कि आप का  अंतः  यह चाहता  है कि मै  सबके साथ अच्छा व्यवहार करूँ   मगर  अपने यश , धन , और उपलब्धियों की स्थिति में कोई परिवर्तन ना आये ,
 
" मर्यादा पुरुषोत्तम राम , भगवान कृष्ण , का जीवन चरित्र   केवल यह बताता है  कि हर परिवार संबंधों ,और हर मनुष्य के प्रति जो कर्त्तव्य भाव है वह पूर्ण निष्ठां से किया जावे ,मगर कर्म के मार्ग में आसक्ति पैदा हुई तो जीवन के सारे सम्बन्ध आपके अस्तित्व पर एक ऐसी बेड़ी  बन जाएंगे जिसमे फंसा आपका अस्तित्व न तो संबंधों का हो पायेगा और न ही मनुष्य  होने का कोई आदर्श स्थापित कर पायेगा क्योकि आप आसक्ति और संबंधों के जाल में फंसे अपना ही अस्तित्व ख़त्म करने का प्रयत्न करने लगे है और आप यह जान  नहीं पाये कि आपने अपनी ही अनदेखी की है "
 
 
  सबको ठीक  करने  की सोच में और सारा वातावरण आदर्श बनाने के नाम पर आज हर घर में एक बड़ा द्वन्द है कोई पिता अपने पुत्र पुत्रियों को कोई बेटा  अपने माता -पिता भाई -बहिनों और अनेक  रिश्तों  को आदर्श की परिभाषाएं समझाने में लगा है कोई यह सोच रहा है  कि यह गलत है यह सही और हर इंसान अपने अनुसार सब लोगों को आचरण करता देखना चाहता है और यही से आरम्भ होता है मानव जीवन का संघर्ष अनवरत चलने वाला संघर्ष  जिसका कोई अंत है ही नहीं शायद हम अपने आपपर केंद्रित होकर सबसे अच्छा व्यवहार , और सम भाव का व्यवहार  रखते और सबको उनके भोग्यों के साथ छोड़ देते तो ज्यादा अच्छा था |आप अपने व्यक्तित्व को इतना सशक्त बनाते जिससे आपका लोग अनुशरण काने लगते | 

हर आदमी आपका शारीरिक शोषण मानसिक शोषण और अदृश्य शोषण का भाव लिए बैठा है और आप स्वयं अपने से अधिक उस बाह्य आत्मा का चिंतन कररहे है आप समझ सकते है कि दूसरों से की गई अपेक्षाएं ही आपके जीवन की शांति भंग करने के लिए पर्याप्त है आपका जन्म अकेले हुआ है औरसबसे  अच्छे व्यवहार के साथ आपको केवल  अपनी जीवात्मा के उत्थान के बारे में सोचना है , माता -पिता ,भाई -बहिन , मित्र -प्रेमी ,पुत्र -पुत्रियां और संसार का हर रिश्ता अपने कर्म अनुसार भोग्य भोग रहा है और उसके सुख दुःख के आप कारक भी नहीं हो , ऐसे में आपका कर्त्तव्य यही है की आप सबसे आदर्श व्यवहार रखें और ,समय समय पर उनकी पूर्ण सहायता करें आदर्श रिश्तों का मायने बने लेकिन उनके कर्म विधान में बाधा  मत बनें |

जीवन में इन्हें अपना कर स्वयं को केंद्रित करें
मनुष्य का जीवन चक्र उससे यह अपेक्षा करता है कि वह अपने आपको आदर्श सिद्ध करते हुए जीवन से प्रयाण करे और यह भाव आपको बार बार दोहराना भी है ,| 
मनुष्य में अपरमित  शक्ति है उस की खोज और उसे जाग्रत करने की ललक बनाये रखिये , प्राथमिक स्थिति में स्वयं को एकाग्र और अंतर्मुखी करके स्वयं को जानने का प्रयत्न करें | 
दूसरों की समस्याओं में सहयोग तो दें मगर उसमे स्वयं को फ़ँसाएं नहीं क्योकि आपकी मदद करने की एक सीमा है उसके बाद आपका कोई भी कार्य सामने वाले को सुख नहीं दे पायेगा | 
एक सम्बन्ध के लिए दूसरे को दुःख देने से  हल नहीं निकलते आवश्यक यह है कि  आप सबको समझाए और एक सीमा बाद उन्हें उनके हाल पर छोड़ दें यह मान लें कि इसका समाधान ईश्वर देगा | 
कौन समझेगा और कौन समझायेगा यही प्रश्न बड़े विचित्र है ,हर आदमी अपने हिसाब से सोचना चाहता है अपने बारे में कोई सहानुभूति के लिए छलावा करता है तो कोई शक्ति के अनुसार क्रोध यहाँ आप क्या कर सकते हो यह प्रश्न चिन्ह है 
जो चल रहा है उसमे अपनी भूमिका का आकलन करें , और सम भाव से यह चिंतन करें  कि आप न तो पक्ष बनें न हीं एकाधिकार जताएं क्योकि आपका जीवन और  समय निश्चित है और उसमें आपने आपको सिद्ध करना है आपको
दुःख उनका नहीं मनाये जो अपने थे ही नहीं  हाँ उनका काम केवल लूटना और दुःख देनाथा वो देकर चले गए अब जो दुःख और क्लेश की शक्ति को एकत्रित करके महा शक्ति बनाकर लक्ष्य के प्रति जुट जाने की बारी है | 
जो सुख दूसरों  पर आधारित हुआ वह आपको केवल और केवल दुःख देगा , अतः बहुत सारी अपेक्षाओं  की जगह स्वयं को इतना शक्तिशाली  बनायें कि आपको दुष्ट लोगो की जरूरत ही न पड़े | 
इसका दुःख मत मनाओ  कि  तुमने सबके साथ बहुत अच्छा किया है तुम्हें तुम्हारे अपनों ने ही छला है यह तो जीवन का सत्य है यह जब तक आप शक्ति संपन्न और सबल नहीं होगे  आप शोषण के पत्र रहेंगे आप स्वयं को एकाग्र कर स्वयं को सशक्त बनायें| 
आपको दूसरों के अधीनस्थ होकर सेवा में नहीं लगना  है वरन स्वयं को सफल सिद्ध करके उनकी मदद करनी है जिससे आपके साथ उनका विकास हो ,| 
सबकी सहायता करें सबको अथाह प्यार दें परन्तु उनके उन संघर्षों में जो उन्होंने स्वयं चुने है उनका भाग्य मानें और स्वयं को ज्यादा न फँसाएं |
अपने व्यक्तित्व को ऐसा बनाएं  कि आपको देख कर लोग जीवन की परिभाषाएं सीखें क्योकि आप स्वयं में केंद्रित रह कर समूर्ण समाज के हितों को रक्षित कर सकते है |

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