दायित्वों की आपूर्तियाँ बनाम सफलता
प्राचीन से ही भारतीय दर्शन इस बात को समझाता रहा है कि कर्तव्य, दायित्व और अधिकार अपने क्रम में ही होनेचाहिए थे। यदि इनका क्रम ख़त्म किया गया तो समाज में और अधिक समस्यायें बढ़ जाएँगी, जिनका हल हमारेपास नहीं होगा। शायद यही विषय स्तिथियाँ वर्त्तमान में सब समस्याओं का सबसे बड़ा मूल है। हम अपने आस पासके वातावरण, संबंधो और समाज से यही चाहते है कि वह हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व कि कमियों को पूरा करता रहेपरन्तु वह यदि हमे कुछ नही दे पाता तो यही से चालू हो जाता है एक न ख़त्म होने वाला संघर्ष |
दायित्व ही केवल एक ऐसा पक्ष है कि यदि मै और मेरा समाज इसका निर्वहन ठीक से कर पाये तो शायद अधिकारोंकर्तव्यों और पीदियों का द्वंद स्वतः समाप्त हो सकता है|अब प्रश्न यह था की मेरा दायित्व किसके प्रति होनाचाहिए?
इस प्रश्न के उत्तर में धर्म शास्त्र और दर्शन दोनों अपना मत यह देते है कि सर्व प्रथम आपको यह तय करना होगाकि आपके जीवन में ऐसी कोंन सी विषय स्थितियां है जिन्हें आप बदल नहीं सकते , और जिनसे आपका अतीत , वर्तमान और भविष्य तीनो जुड़े है शायद इनके प्रति ही आपको दायित्व निभाना है |
दायित्व के प्रथम सोपान पर माता का स्थान है , जो आपको जीवन शिक्षा और परवरिश देती है और उसका दायित्वनिर्वहन आपके जीवन को किसी भी स्थिति में सुखमय बनाए रखेगा |
दूसरे स्थान पर पूर्ण भाव से पिता आते है, क्योकिं वे आपके जीवन के आधार स्तंम्भ रहे है, अपनी आवश्यकताओंकि परवाह किए बगैर उन्होंने आपकी परवरिश की है और उनसे आपको कार्य स्थान की स्थितियों में पूर्ण संतोषमिलेगा |
तीसरे स्थान पर गुरु आते है जो आपको पूर्ण दायित्व निर्वहन के लिए, संतान को संस्कार, आय और पराक्रम देंगे |
चोथे स्थान पर यहाँ आपका शरीर है | धर्म ग्रंथों ने स्पष्ट किया कि "शरीर माध्यम खलु धर्म साधनं "शरीर हीआपको प्रेरणा और भाव देता है और उसके प्रति धनात्मक रहना चाहिए |
- दायित्व से भागे नहीं हम अपने भविष्य कि भी चिंता निरंतर बनाये रखें क्योकि हम जो मूल्य अपने सुख के लिए जोड़ रहे है वहीँ से हमारे भविष्य कि नीवें तैयार हो रही है |
- दायित्व को जितनी शक्ति से आप निर्वहन करेंगे उतनी ही तीव्रता से आपके कर्त्तव्य और अधिकार पूर्ण होने लगेगे |
- गीता के कर्त्तव्य मार्ग के अनुसार हम कर्त्तव्य पर अधिकार रखें परिणाम कि चिंता न करें तो फल श्रेष्ठ एवं अवश्य अधिक फल दायी होगा |
- हम हर कार्य सम्बन्ध को एक परीक्षा समझ कर श्रेष्ठ स्वरुप में सम्पादित करें
- हम सबके प्रति अपने द्वारा हो रहे व्यवहार के प्रति सचेत रहें |
- दूसरों कि क्रियाओं का चिंतन न करें नहीं तो आप में नकारात्मकता पैदा होने लगेगी !आप केवल यह ध्यान करें कि आप सबसे श्रेष्ठ क्या कर सकते है और कितना कर प् रहें है|
- व्यक्तियों के सम्बन्धों के प्रति शीघ्र निर्णय करें यदि सम्बन्ध धनात्मक है तो उन्हें बना रहने दें नहीं तो उन्हें शीघ्र ख़त्म करें जिससे आपकी विकास दौड़ कही भीड़ जैसी सामान्य होकर ख़त्म न हो जाए |
जीवन मूल्यों का मूल्यांकन अवश्य करते रहे अन्यथ बदलते परिवेश में आप सैमसामायिक नहीं हो पाएंगे |
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