शारीरिक अपवित्रता को श्रेष्ठ गुणों से जीतें

मनुष्य सदैव से अपनी  की खोज  में परेशान होता रहा है जब भी आत्म चिंतन  किया तो यह पाया कि   सम्पूर्ण मनुष्य जीवन बड़ा अद्भुत सार प्रदर्शित करता है प्रकृति में हर  वस्तु  व्यक्ति और जीव अपने को  सुंदर  समयानुरूप तथा खुबसूरत बनाने का प्रयत्न करता रहता है । शरीर पर हजारो लेप सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग और एतिहासिक  प्रयास  में शरीर को सुन्दर बनाने के लिए बार बार नयी  नयी विधियों का  प्रयोग करता रहा है मनुष्य। अर्थात मनुष्य को सुगन्धित ,सुन्दर  और समय के साथ  स्वयं को खुबसूरत बनाने के लिएबहुत  बड़े बड़े प्रयास करने पड़ते है  अर्थात यह हुआ की  जीव मूलत : अशुद्धि  गन्दगी और ऋणात्मक्ता के साथ जुडा  रहा है परन्तु इतिहास गवाह है की इसी परिवेश से महानता , पवित्रता और पूर्ण समर्पण का भाव जिनका अस्तित्व है वे लोग निकलकर संस्कृतियों की धरोहर बने रहे है और यह कथन इस बात को सिद्ध करता है की मनुष्य शारीरिक परिवेश में वीभत्स है जबकि गुण धर्म कर्म और समर्पण की पराकाष्ठ के कारण महान सिद्ध  हुआ है ।

धर्म कर्म समर्पण परहित का भाव और सत्य उसे उस ऋणात्मकता  से मुक्त करके महान बनाने का कार्य करता है जन्म से अपवित्र शरीर केवल  महान इसीलिये बन पाया जिसमे सत्य अहिंसा परहित काभाव और अनेकों गुण  उसकी अपवित्रता से कई गुने भारी पड़े और वह महान बन पाया सारत :यही कहा जा सकता है कि
"सबसे दुर्लभ मनुज शरीरा " शरीर और जीव का हर भौतिक  भाग पूर्णत;अपवित्र है और उसे अपने गुण धर्म भाव और पूर्ण धनात्मक भाव से श्रेष्ठ बनाया जा सकता है आइये  हम सब एक संकल्प लें की अपनी सम्पूर्ण ऋण। त्मक्ताओं को अपने गुण और सत्य अहिंसा की अजस्र धरा से इतना निर्मल करदें जो मनुष्य को देव तुल्य बना सके ।

 

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