हारता सा लेवल ऑफ़ सेटिसफ़ेकशन

बहुत छोटा था  मै ढेर खिलोने थे मेरे पास जो आता था नया खिलौना जरूर लाता था और मै  बिना वक्त गंवाए नए खिलोनोसे खेलने में जुट जाता था और थोड़ी ही देर में मेरा मन उस खिलोने से भर जाता था और मन फिर एक नए खिलोने की आशा करने लगता था ।पिता जी नाराज होते हुए कहते थे इतना ढेर लगा है मगर तुम्हारा पेट नहीं भरता मन तो तुम्हारा भर ही नहीं सकता कल तुम ऐसे ही  खिलोने से खेलते हुए यह कह रहे थे कि  बस ये अकेला बेस्ट था मगर पलक झपकते ही तुम दूसरे खिलोने की तरफ बढने  लगे मुझे लगा की यह पेट भरने का नहीं मन भरने का सवाल है , मै  खिलोनो की कमी से नहीं अपितु मन के उस भाव से अपूर्ण  था जिसमे संतोष का भाव पलता है ।दोस्तों अरबो की संपत्ति और हर तरह का शारीरिक मानसिक सुखों के ढेर भी आपको कम और संतोष  नहीं दे पायेगे  क्योकि आपने कभी रुक कर जीना सीखा ही नहीं था और बड़े होने पर  भी आप अपने बचपन की उस हवस को नहीं भूल पाए जिसमे संतोष और न्याय होता है , आज परिवर्तन चाहता है ।हर चीज जिन्दगी में बचपन का खिलौना नहीं होती ,आप बचपन का नाम लेकर जीवन भर अपने मन की अच्छी बुरी आदतों को छुपाते रहे और दूसरों पर दोषारोपण करते रहे वस्तुत आप स्वयं ही अपने मन भाव और आदर्शों की आस्थाओं से बहुत दूर है आपका धर्म केवल लाभ कमाना है कैसे भी किसी हद  पर जाकर भी ,चाहे उससे किसीको कितना ही दुःख क्यों न पहुचे आपको केवल अपने स्वार्थों से प्यार है ।आपके सम्बन्ध केवल अपने से है और आप अपने सामने किसीको जानते ही नहीं है ।  

दोस्तों जीवन किसी ऐसे सुख संतोष की खोज में हमेशा भटकता रहा है जिसमे उसे हर पल जीवन का मूल संतोष मिलाता रहे ,कभी उसे अपना मन चाह न करने का दुःख होता है और कभी सब कुछ अपने मन से करने के बाद भी आत्म ग्लानी होती है क्योकि हर वह कदम जिसपर केवल शारीरिक आपूर्तियों का भाव हो उससे मन कैसे संतुष्ट होगा 
जब आप शरीर की हवस के पीछे भागते रहोगे तो शरीरऔरअधिक चीत्कार कर आपसे और सुखों साधनों कीमांग करेगा , सबको अपने आधीन हर गलत काम पर भी प्रसंशा  के लिए लालायित रहेगा जबकि मेरा स्वयं का मन भी जानता है की मै  इन कार्यों में पूर्णत गलत हूँ जिसके लिए मै स्वयं अपराध  बोध में हूँ ।

मित्रों मन और बुद्धि यह जानती है की कौन सा कार्य मेरे लिए अपराध बोध बनेगा , पर  आदमी का स्वाभाव ऐसा ही है कि वह स्वतंत्रता मिलते ही अपनी उस हवस को जिसे उसे मजबूरन छुपाना पड़ा था एका  एक विस्फोट के साथ क्रियान्वित कर  बैठता है जिसका अंतिम छोर उसे भी नहीं मालूम ,अच्छे  बुरे अपने पराये की मानसिकता स्वयं या अपनों के मान अपमान से उसका कोई सरोकार नहीं होता  वह यही जान पाता है कि  उसकी हवस क्या है और उसे कैसे पूरा किया जाए ।यही क्रम चलते चलते पूरा जीवन असंतोष अशांत और कोलाहल से भर जाता है ।जीवन के लिए कुछ नया होता ही नहीं है मन किसी भी जगह ठहरने को तैयार नहीं होता परिणाम जीवन गहरा प्रश्न बनने लगता है ।

बस आज जरूरत केवल  यह है कि अपना आत्म चिंतन करें जब आप स्वयं अपने में खो गए तो आपका कोई  था ही कहा न आपके पास कोई सम्बंध था न किसी सम्बन्ध पर आप थे बस एक हुजूम था जिसके अपने अपने स्वार्थ थे और वहाँ  हर एक स्वार्थी था अपने आपके लिए दोस्तों यही दुनिया का वह कटु सत्य है जिसे आप समझने में पूरा जीवन लगा देते है ।आज यदि आप चाहे तो जीवन को फिर अपनी गति दे सकते है मगर शर्त यह है की आप अपने हवस अपने नशे और अपनी मानसिकता के संकीर्ण दायरों को तोड़ कर इनसे बहार निकलने का संकल्प तो ले सकें।

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