
शून्य की सृष्टि विचारणीय
शून्य की सृष्टि विचारणीय के आरम्भ में कुछ भी तो नही था ,न भोतिक और न अभोतिक जीवन नही था केवल था शून्य और वही हर निर्माण का आधार भी रहा है शून्य यह बताता है कीउससे पूर्व कुछ नही है और उसके बाद सम्पूर्ण आरम्भ है वह जीवन से पहले भी विद्यमान था उसे जीवन के बाद भी रहना था और वह चिरंतन पृथ्वी के अस्तित्व से पहले भी सतत अस्तित्व मे था ब्रह्माण्ड का हर सत्य इस शून्य की iही देन है ,शून्य की स्थिति और उसका आकार और प्रकार सोच और बुद्धि से परेहै क्योकि वह विचार और कल्पना से भी परे है
शून्य के बाद सब था शून्य से पहले कुछ था ही नहीं ,वह अनादी सत्य था उसके बाद केवल निर्माण था वह एक ऐसा सत्य था जो सम्पूर्ण स्वरुप में विद्यमान था शून्य स्वयं प्रकाश का सुचालक बना खड़ा रहा ब्रह्माण्ड की हर शक्ति शून्य के तेज और गति से गतिशील है यही शून्य प्रति पल कुछ नया करने की चेष्टा भी करता है अर्थात जीवन के पूर्व और पश्चात जिसे साकार रूप में रहना था वह केवल शून्य ही था
धर्म और काम का अन्तिम बिन्दु यही शून्य था ,कृष्ण का निष्काम कर्म ,योग की परम गति भी यही शून्य थायोगी भाव शून्य होते रहे ,कामी अपनी रति मे उलझा शून्य के परम को दूढ़ता रहा ,और निष्काम कार्य में लगा मनुष्य हर कर्तव्य में शून्य भाव से जीता रहा उसे मालूम था कि वह कार्य के फल की चिंता से पीड़ित नही है
सारत;यही कहा जा सकता है कि योगी और भोगी का मूल भाव केवल शून्य से बधांरहता है और उसका हर प्रयत्न यही जानने को होता है कि आख़िर वह शून्य है क्या बलाशून्य पञ्च महा भूतों की वह अपरमित शक्ति है जो ब्रह्माण्ड को ओचित्य के हल तक लेजाती है, वही आदि सत्य का कारक भी है वही नव परिवर्तन का मूल भी है हमें आज इसी शून्य को जाग्रत करना है जिससे जीवन सुख अद्वतीय सुख की परिभाषा बन सके ,यह शून्य शरीर मन एवं वचन मे समाहित होकर जीवन को आनंद दे सके
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