हजारों ख्वाहिशे इंसान की है
एक साधु महाराज का अंतिम समय था और वो जीवन के इस समय को पूर्ण शांति के साथ व्यतीत करके स्वर्गारोहण करना चाहते थे , स्वर्ग के देवता उनका इन्तजार कररहे थे और साधु महाराज काफी समय के बाद भी वहां नहीं पहुंचे थे देवताओं ने कहा जाओ मालूम करों की संत बाबा कहां रह गए है ,दूतों ने वहां जाकर देखा तो मालूम हुआ साधु महाराज की आत्मा शरीर छोड़ चुकी है, परन्तु वह कहां रह गयी ,यह किसी को नहीं पता ,दूतों ने जब सूक्ष्म निरीक्षण किया तो मालूम हुआ की साधु महाराज का शरीर जहाँ पड़ा था ,उसके ऊपर एक बड़ा आम का वृक्ष लगा था और बहुत ऊपर एक पके हुए आम के इर्द गिर्द उनकी आत्मा घूम रही थी, सोच यह थी की इस आम के वृक्ष को मैंने लगाया और फल नहीं खा सका , दूत ने तुरंत उस आम को तोड़ कर साधु बाबा को मुक्त किया और यह सोचने लगा की इंसान देवता या यों कहें कि प्रत्येक जड़ और चेतन अपनी अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं के चक्रव्हियू में फंसा परम संतोष की कामना कररहा है जबकि उसकी सम्पूर्ण शांति को उसकी ही आकांक्षाएं और वासनाएं प्रति पल नष्ट भ्रष्ट कररही है |
जीवन प्रतिपल बढ़ता जाता है इच्छाओं का चक्र और अधिक गहरा और जटिल होता जाता है और हम स्वयं के बनाये जाल में इतना अधिक फँस जाते है की हमारी सम्पूर्ण क्रियाएँ ही हमारे जीवन को अस्थिर अशांत और प्यासा सिद्ध कर देती है , हमारी हालत रेगिस्तान में भटकते हुए उस इंसान की तरह होजाती है जो रेतीली चमक को पानी के भ्रम में पकड़ने का अथक प्रयास करता है मगर बार बार उसके हाथ निराशा ही लगती है और अपने अंतिम पल तक वह यही विचार करपाता है की शायद उसे यह और मिल जाता तो ज्यादा अच्छा हो जाता | यही हमारी आपकी जीवन शैली का कोई चित्र है जिसमे केवल भ्रम , प्यास और खालीपन ही ज्यादा है |
हजारो इच्छाओं आकांक्षाओं के बीच फंसे आदमी की दशा बड़ी विचित्र और दयनीय दिखाई देती है हमारी एक इच्छा पूर्ण करने के लिए, हम बड़ी मेहनत से एक उपलब्धि हासिल कर पाते है, उसकी पूर्ती से पहले ही फिर नई इच्छाए हमे परेशान करने लगती है और फिर से एकबार हम अपने प्रयत्न में लगजाते है , जीवन भर यही क्रम हमारा पीछा करता रहता है और हम जीतने हारने और जीतने के भ्रम पाले आगे बढ़ते जाते है , आकांक्षाओं का चक्र समय या काल की तरह अजेय और अमर है और इंसान एक नश्वर प्राणी है, तो उसे इन इच्छाओं और कामनाओं से हारना ही होता है ,जो उसके जीवन की सफलता और उसे श्रेष्ठ सिद्ध करने में बाधक ही बनी रहती है |
यहाँ इंसानी इच्छाएं बड़ी अजीबो गरीब है --किसीको अकूत धन वैभव की आवश्यकता है, तो किसीको बड़ेबड़े राज प्रासादों की ,किसीको पेट भरने की इच्छा है तो किसीको हजारों पीढ़ियों तक धन सम्पदा की आवश्यकता है, किसीको तन की इतनी अधिक भूख़ है कि वह दुनिया के हर सुन्दर व्यक्ति का दोहन करना चाहता है और किसीको भूख है स्वयं को सर्व श्रेष्ठ साबित करने की ,कहने का आशय यह कि तन ,मन, धन और संसार की हर श्रेष्ठ वस्तु और व्यक्ति पर अधिकार जाताना चाहता है हमारा यह इंसान , और इन सबकी उपलब्धता से वह यह गलत फहमी भी पालने लगता है कि शायद इन सबकी प्राप्ति उसे अमर और काल जई बना सकें ,मगर जीवन अपनी नश्वरता से बंधा यही सिद्ध करता रहता है ,कि जीवन का वास्तविक आशय इच्छाओं की आपूर्ति में नहीं अपितु उनके त्याग में निहित है |
एक दार्शनिक ने अपने दर्शन में लिखा
आपकी मृत्यु के बाद बची अकूत संपत्ति , राजप्रासाद और दूर नजरतक फैली जमीन जायदाद यह सिद्ध करती है कि आपने इस बची हुई संपत्ति के मूल्य के बराबर अतिरिक्त श्रम किया जिसका प्रयोग आप अपने आत्म विकास के लिए भी कर सकते थे जिससे आपको जीवन का अंतिम सत्य ,मोक्ष या यों कहिये आपको परम संतोष का बिंदु अवश्य प्राप्त हो सकता था ,जो आप हासिल नहीं कर सके
हम आपसी संबंधों के मामले में भी अत्यंत गलत धारणा लिए हुए है , हर इंसान अपने हर सम्बन्ध पर एकाधिकार चाहता है और स्वयं को पूर्णतः स्वतंत्र रखना चाहता है , उसकी धरणा यही रहती है कि वह सर्वश्रेष्ठ बना रहते हुए भी हर अच्छी विषय वस्तु , इंसान और श्रेष्ठता का स्वामी रहे , और हर इंसान उसकी प्रसंशा करता रहे , वह एक शहंशाह की तरह हर व्यक्ति और वस्तु का प्रयोग करने हेतु स्वतंत्र हो ,परन्तु वास्तविक जीवन में यह चाहना उसे स्वयं भविष्य के विकास से काफी दूर खीच ले जाती है परिणाम यह जीवन केवल पश्चताप का मायने होकर रहजाता है जिसमें लाखों कमियां परलक्षित होने लगती है |
अंतरात्मा और जीवन की सबसे बड़ी चाहना है परम शांति , एक असीम शीतलता , एक असीम आत्म चेतना का भाव या यूँ कहिये स्वयं और ब्रह्माण्ड के विकास की सोच जिसमे स्वयं से समाज तक कल्याण की भावना छुपी हो
एक बड़े हवन कुण्ड पर बैठा कोई इंसान जलते हवन में मुट्ठी भर भर कर आहुति और घी डाल रहा है और यह भी चाहता है की इस अग्नि के प्रचंड वेग से वह स्वयं न जले , जब तन की वासनाएं उठी तो उसका बेतहाशा दोहन किया जब धन सम्पदा और श्रेष्ठ बनने की चाह हुई तो पूरा जीवन झोंक डाला आपूर्ति के लिए , और अब जब कुछ शेष ही नहीं बचा पश्चताप के सिवा ,तब हमे आवश्यकता हुई परम शांति की जो आपसे काफी दूर है ,जिसपर आपका कोई अधिकार है ही नहीं , हवन कुण्ड की ज्वालाओं को शांत करने हेतु आपको आहुति डालनी बंद करनी थी, तन , धन और श्रेष्ठता की इच्छाओं को त्याग कर स्वयं को भविष्य को और जीवन की नश्वरता को पहचानने की आवश्यकता थी , जो आपको जीवन से और मृत्यु से जीतने का मार्ग सहज कर सकती थी |
निम्न को जीवन के आधारों में शामिल कीजिए
जीवन का वास्तविक आशय यह है कि आप उसे किस हद तक समझ पाये इसका अर्थ यह है कि जीवन केवल मेरे लिए नहीं है वरन दूसरों के कल्याण के लिए भी है , अतैव वह सही अर्थो में स्वयं को सिद्ध करता रहे |
कामनाओं , इच्छाओं और आवश्यकताओं का सही अर्थों में आकलन किया जाता रहना चाहिए क्योकि एक सीमा के बाद यही कामनाएं आपको पतन के द्वार तक ले जा सकती है |
जीवन में सोच और चिंतन से मुक्त कामनाएं आपको वासना के रूप में प्राप्त होती है इनका भेद आपको मालूम होना चाहिए , आवेश और जल्दी में आपूर्ति का हर प्रयास आपको संतोष से दूर ले जाता है |
ईश्वर ने हर इंसान को कुछ खूबियों और कुछ कमियों के साथ बनाया है आपको उसे उसी स्वरुप में स्वीकार करना चाहिए इससे आपकी नजर में दूसरों का सम्मान बढ़ेगा और आपका व्यक्तित्व निखरेगा |
परस्पर विश्वास होना चाहिए मगर इस विश्वास को समय समय पर परीक्षित अवश्य करते रहें क्योकि केवल बोलने , सहानुभूति और भविष्य में कुछ करने के सब्ज बाग़ आपको सत्य से दूर लेजाते है|
कामनाओं और वासनाओं के अतिरेक का त्याग ही हमें हमारे भविष्य के लक्ष्य की तरफ लेजा सकता है अन्यथा प्रयत्न की हर दिशा इतनी भ्रमित और दिशा हीं होगी जो हमें पश्चाताप दे ने लगेगी |
नाकारात्मक स्वप्नों से स्वयं को बचाने का प्रयत्न करें , क्योकि इन नकारात्मक भावों का पूरे व्यक्तित्व पर इतना गहरा प्रभाव होता है की जीवन का हर विकास अवरुद्ध हो जाता है |
आपका हर कार्य आपका भविष्य का भोग्य बनने वाला है इसलिए हर कार्य से पूर्व आप यह चिंतन अवश्य करें की इससे आपको बाद में पश्चताप तो नहीं होगा |
शरीर और आत्मा दोनो अलग है, बहुत सारे कार्य शरीर करता है और सबके बाद आत्मा सिद्ध कर देती है कि यह कार्य सही था की नहीं , अतैव आत्मा की आवाज सुनने का प्रयत्न करें |
जो तुम्हारा नहीं है ,उसका शोक कैसा और जो तुम्हारा था उसका अभिमान क्यों , यह तो नियति है दुःख और सुख पर केवल ईश्वर का अधिकार है आप स्वयं उसके नियंता न बनें |
क्रोध ,झूठ ,फरेब , का सहारा लेकर जो होगा सो देखा जाएगा वाली शैली से जीवन केवल पश्चाताप दुःख निराशा ही दे सकेगा अतः स्वयं को सत्य और त्याग का मायने बनाएं |
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