जीवन का अर्थ शिकायत और रोना नहीं है

जीवन था तो सुख था जीवन था तो दुःख भी साथ था , परिस्थितियां  बदलती गई, समस्याएं नए नए स्वरुप में आती गई और हर व्यक्ति  अपने अपने स्वभाव के अनुसार जीवन की परिभाषा गढ़ता चला गया और उसका संतोष इन्हीं के इर्द गिर्द अपना डेरा डाले रहा |
एक गुरु  अपने तीन शिष्यों  को लकड़ी काटने   घने जंगल में भेजा तीनों अलग अलग दिशाओं में चल पड़े और दूसरे दिन दोपहर में गुरु के आश्रम पहुंचे इनमे केवल एक शिष्य लकड़ी का गट्ठर लिए था बाँकी शिष्यों के कपडे फट चुके थे जगह जगह खरोचें लगी थी एक शिष्य की पाँव की कोई हड्डी टूट गई थी , और दोनो कराह रहे थे , गुरु ने  जानकारी ली तो  शिष्यों ने जिन्हें चोट लगी थी और हड्डी टूट गई थी उन्होंने रोते हुए बताया कि इस सफल शिष्य ने जो लकड़ी का गठ्ठा लेकर आया है उसने हम दोनों को खराब दिशा में भेजा, इसे  मालूम था की वहां खतरनाक जीव जंतु रहते है ,हम दोनो गुरुदेव मरते मरते बचे है , हड्डी टूटे शिष्य की और इशारा करके वोशिष्य बोला की  इसे हाथियों ने घेर लिया ,भागते हाथियों  के साथ भागते भागते यह एक गहरे गड्ढे में गिर गया, जब हाथी  चले गए तो ये निकल पाया , मेरे पीछे एक रीछ   पड़  गया उससे भागते भागते मेरे सारे कपडे फट गए अचानक मै पहाड़ से फिसल कर बहुत नीचे गिरा फिर भागने लगा तब कही जाकर एक झोपड़ी में रह रहे आदिवासी परिवार  ने मेरी जान बचाई | गुरु ने तीसरे शिष्य से पूछा पुत्र आपको कोई कठिनाई नहीं हुई  क्या , उसने गुरु को प्रणाम किया  और  बताया कि  मैं जब लकड़ियाँ चुनने का विचार ही बना रहा था अचानक मुझे शेर की दहाड़ने की आवाज सुनाई पहाड़ से नीचे देखा तो एक शेर का परिवार तीन बच्चों के साथ मेरी और ही आ रहा था मैंने मन ही मन आपको प्रणाम किया और पास के विशाल वृक्ष पर चढ़ गया ,पहले तो मै दो घंटों  तक  शांत और स्तब्ध रहा, शेर बार बार पेड़ पर चढ़ते गुर्राते और गिरते रहे फिर वो पेड़ के नीचे ही बैठ गए , मुझे ख्याल आया कि  मै  लकड़ी  एकत्रित करने आया हूँ , तो मैंने उसी वृक्ष की सूखी लकड़ियाँ  इकठ्ठा करके नीचे फेकना चालू करदी पता नहीं कब शेर भाग गए , फिर रात भर मैं खुद को वृक्ष से बाँध कर वहीँ पड़ा रहा सुबह जब  कुछ लोग   आते दिखे तब मैं  उतरा और ये लकडियां  लेकर आपतक आ पाया हूँ , गुरु ने देखा सारी लकडिया एक वृक्ष की ही थी उन्होंने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया और दोनो शिष्यों से कहा  पुत्र  आप इनसे कुछ सीखों |

गुरु ने कहा  पुत्र जीवन जब आरम्भ होता है तब से ही उसे संघर्ष , समस्याओं और उनके प्रति किये कर्त्तव्य का बोध सीखना होता है हमे चाहते न चाहते वो सब कार्य , मार्ग  तय करने होते है जो समय हमको देता जाता है यहाँ यह समस्या नहीं है कि आपपर समस्या आई क्यों वह तो स्वभाव है प्रकृति का , यहाँ प्रश्न यह था की हम बार बार अपनी अकर्मण्यता और अपने स्वभाव के कारण दूसरों को दोषारोपित करते रहे , हमने बचपन में भाई बहिनों  को दोषारोपित किया , बड़े होने पर अपने मित्रों को दोष दिया और बड़े होने पर समाज को दोष दिया और जहाँ पर भी हमारी कमियां अकर्माण्यता और बुरी आदतें हमे समस्या सी दिखने लगी हमने अपने भाग्य और विधाता को दोष देना आरम्भ कर दिया और जीवन इसी तरह निकल गया ,पुत्र यहाँ पर प्रश्न यह नहीं कि आप दोषी थे या नहीं यहाँ केवल प्रश्न यही था  कि बाल्यावस्था से माँ बाप भाई बहिन मित्र सब पर हम दोष मढ़ते रहे , परन्तु कभी भी हमने अपने अंतर में झांक कर स्वयं को पहिचानने की कोशिश नहीं की यहीं से हमारा पराभव आरम्भ हो जाता है ,यह कहकर गुरु मौन हो गए दोनो शिष्यों ने क्षमा प्रार्थना की और लकड़ी लाने  वाला शिष्य उनके घाव साफ करने लगा |

हर दिन हमे जीवन उस मोड़ पर खड़ा  कर देता है जहाँ हम अपने अस्तित्व को बचाने के लिए दूसरों पर आरोप लगाने लगते है  यह हमे विरासत में ही प्राप्त होता है ,फिर तो अपनी कमियां अपने सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार और जीवन की तमाम नकारत्मकताएं केवल दूसरों पर थोप दी जाती है , परिणाम जीवन और गहरे और गहरे गर्त में डूबता चला जाता है , और हम स्व मूल्यांकन और स्वयं के दोषों के अवलोकन से दूर अपनी झूठी शान और अति महत्वाकांक्षी स्वाभाव के कारण अपनी गलतियों को दूर कर ही नहीं पाते , शायद जीवन इसी हवस , महत्वाकांक्षा और  उन जरूरतों का नाम हो जिन्हें कभी पूरा होना ही नहीं होता है , जैसे ही एक आवश्यकता पूरी हो वैसे ही दूसरी आवश्यकता आपको परेशान करने लगती है जीवन यही कार्य बार बार दोहराता रहता है |



हमारी दशा उस शराबी की तरह हो गई है जिसने  शराब के नशे मे बीती रात बहुत से अपराध किये  ,समाज और  प्रसाशन ने उसे खूब दण्डित किया और उसने समाज और प्रसाशन के सामने १००० बार कसमें खाई  कि  वह कभी शराब नहीं पियेगा और न ही कभी कोई अपराध करेगा , मगर रात होते ही वह फिर एक शराब की दूकान पर खड़ा अपनी बारी की प्रतीक्षा कररहा है , क्योकि हमने जीवन में अपने आत्मावलोकन का प्रयास ही नहीं किया ,हम सबकी शिकायत पर ऊपरी भाव से यह कहने  के आदि होगये कि, छोडो हम कभी फिर गलती नहीं करेंगे ,लेकिन हमारी अंतरात्मा हमारा ज़मीर  हमारे आदर्श सब कुछ अपनी हवस के कारण छोटे थे ,अंतिम रूप में कल जब  डॉ ने पेट की परेशानी में यह स्पष्ट कर दिया यह लिवर सिरॉसिस है अब हम फिर कसमें खा  रहे है , परिणाम हम जीवन भर उन्हीं  इच्छाओं के ही गुलाम बने रहे ,जबकि हमारे पास कई मार्ग थे स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के |

जीवन स्वयं इतना स्वाार्थी है जिसे दूसरे की परवाह ही कहाँ  होती है, एक बंदरिया को बच्चे के साथ पानी के टब में डालने पर केवल सीमा तक उसने बच्चे को बचाने का प्रयत्न किया ,जबपानी उसकी नाक पर आया तो उसने बच्चे को टब में पटका और कूद कर वह बाहर खड़ी हो गई,  यह बहुत बड़े दार्शनिक का मत रहा है और यहीं जीवन का एक मात्र सत्य भी है ,जब भी हम अपनी कल्पना करते है  आस पास के सारे लोग हमे प्रतिद्वंदी से दिखाई देने लगते है , हमारे पास एक ही लक्ष्य होता है कि कैसे भी हमे जो ठीक लगता है उसे पूरा किया जाए ,रोना ,पीटना , झूठ ,सच ,सहानुभूति और स्वयं को बड़ा बनाते हुए वही सब करना है जो हमे ठीक लगे , और सबसे बड़ी बात यह की सब लोग उसे अच्छा ही कहें ,जबकि समाज , समय और सारा ब्रह्माण्ड भी यदि साथ हो जाए तो भी आदर्शों  उपेक्षित नहीं किया जा सकता | अर्थात ख़राब को अच्छा और अच्छे को ख़राब नहीं बनाया जा सकता |


 जीवन के इस  प्रश्न पर इनको भी अपनाइये
 

  • स्वयं  का आंकलन हमेशा करते रहिये क्योकि मनुष्य स्वभाव में नित्य प्रति त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है ,उन्हें बिना समय गवाये सुधारना आवश्यक है , दीवार में उगा छोटा पौधा तुरंत उखड जाता है नहीं तो वह दीवार उखाड़ देता है | 
  • अपनी कमियों और शक्तियों का आंकलन करते रहिये क्योकि बड़े बड़े शक्तिशाली वृक्ष भी कमजोर और नन्हीं दीमक के सामने धराशाही हो जाते है | 
  • हर  परिस्थिति  में संघर्ष का भाव बनाये रखिये  समस्या हो तो उसके समाधान का और यदि समस्या न हो तो अपने विकास के लिए निरंतर प्रयास किये जाए | 
  • प्रत्येक व्यक्ति में कमियां और अच्छाइयां है  उन्हें कमियों के साथ स्वीकार करना आरम्भ करें यदि हम बहुत सारी अच्छाइयों का भ्रम पाले है तो उसमे सुधार करलें | 
  • आत्मा और शरीर दोनो ही विपरीत स्थिति और स्वभाव रखते है आत्मा के उत्थान के लिए हठ योग एकाग्रता और बहुत से प्रयास करने होते है शरीर अस्थाई छड़ भंगुर संतोष का कारक  है ,जो नकारात्मकता  भी देता है | 
  • अच्छे और बुरे का भेद स्वयं के हिसाब से न करें उसका भेद वास्तविक आदर्शों के हिसाब से किया जाना चाहिए क्योकि हम अपने दुष्कर्मों को भी  पूर्णतः समझ ही नहीं पाते है | 
  • जीवन में उन लोगो का सम्मान करें जो आपको हर कदम पर रोकने टोकने की प्रवृत्ति रखते है , ध्यान रहे जीवन यह सौगात हरेक इंसान को नहीं देता | 
  • जीवन है तो  गलतियां होंगी और स्वाभाव गत गलतियां  निरंतर यह मांग करती रहती है उनकी स्वीकारोक्ति तुरंत की जाए नहीं तो अहंकार और कमियों की खरपतवार आपके व्यक्तित्व को पूर्णतः नष्ट कर देगी | 
  • संघर्ष के लिए उत्तेजना , क्रोध और अनियमित वार्तालाप के स्थान पर पूर्ण गंभीर और चेतना के भाव का आश्रय लेना चाहिए क्योकि सबसे ज्यादा श्रेष्ठ निर्णय ऐसे समय ही लेने होते  है | 
  • जीवन में अपने दुष्कर्मों की स्वीकारोक्ति बड़ा ही कठिन विषय है जो हमारी अंतरात्मा को भी घायल , निस्तेज और कमजोर बना डालता है , परिणाम उन कार्योंका छुपाव , झूठ आपको शक्तिहीन कर देगा अतैव स्वयं को परिष्कृत करने हेतु क्षमा और स्वीकारोक्ति का प्रयोग करते रहें | 
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