संकल्प की साधना ही सफलता है
जीवन बहुत सरल और अत्यधिक कठिन हो सकता है ,यहां हर आदमी बहुत जल्दी में है, और भागता जा रहा है| उसकी इच्छाएं बढ़तीजारही है ,जीवन के आंकलन धुंधलें होते जारहे है ,और बार बार की निराशाओं से तंग आकर वह स्वयं को दोषारोपित करने लगा है ,परिणाम यह है की उसने स्वयं अपनी जटिलताएं इस रूप में बढ़। ली है जहाँ वह स्वयं अपने हीबनाये चक्रव्ह्यू में फंस गया है | परिवार ,समाज , मित्रों ,और सम्पूर्ण दुनियां में उसका स्थान कहाँ है यह देखने के चक्कर में उसने तमाम तरह की नकारात्मकताएं पैदा कर ली है ,जो उसके भविष्य की उन्नति के लिए अधिक बाधक बनी रहती है |
दोस्तों प्रकृति का एक सिद्धांत है की वह हर काम सब्र से समय ,मर्यादा और कार्यके समाप्त होने के समय का निर्धारण करके करती है ,उसे उसके कार्यों की तीव्रता और उसके सामायिक महत्व के बारे में पूर्ण ज्ञानहोता है , धूप।, हवा ,पानी, हिमस्खलन , उर्वरक मिट्टी एवं शून्यता का सामंजस्य बना कर ही चलती है ,उसका सामंजस्य टूटते ही भयानक आपदाएं आजाती है , चद्रमा की पूर्णता (पूर्णिमा )सूर्य का जल शोषण और बहुत सी स्थितियां समुद्र को ज्वार भाटे ,शांति और गरूत्वाकर्षण को प्रभावत करती रहती है , ध्यान रहे की इंसान में भी नमक ,और जल का अनुपात कमोवेश वैसा है जैसा समुद्र का ,तो स्वाभाविक है इंसान का मन मष्तिष्क भी इन परिवर्तनों से अछुता नही रह सकता | उसमे भीउसी प्रकार परिवर्तन उत्साह निराशा और शून्यता का अनुभव होता ही रहता है ।
समस्याएँ ,समय और नई नई चिनौतियां आदमी को हर पल उठानी ही होती है और इन्हीं से संघर्ष कर आदमी संसार में स्वयं को स्थापित करपाता है ,जब हर स्थिति समय और प्रकृति ही सशक्त है तो हमारे पास क्या है ?दोस्तों हमारे पास है संकल्प कर्त्तव्य और कठिन परिश्रम एवं सोच और ये ही ऐसी शक्तियां है जिनसे इतिहास लिखे है मनुष्यों ने ,विवेकानन्द का रामकृष्ण , सुकरात ,ईसा ,मोहोम्मद और नानक को देवता बनाने वाले और कोई नहीं उनके संकल्प ही थे , मित्रों संकल्प की साधना ही वस्तुतः सफलता का नाम है ,जब हम अपनी संकल्प शक्ति को छोड़ देते है तो हम केवल तात्कालिक विषय वस्तुओं से संतुष्ट दुखी और अकर्मण्य बने बैठे रहते है ,और इस समय हमारी सोच केवल यह
रहती है कि हमे क्या अच्छा लग रहा है ,
इसमे एक तथ्य यह भी है कि हमारी शारीरिक कमजोरियां हमारे मन मष्तिष्क पर हावी हो बैठती है और मन मष्तिष्क से अति आवश्यक कार्य भी हमे कार्य प्रेरणा नहीं दे पाते अर्थात मन और मष्तिष्क पर शारीरिक कमजोरियों का साम्राज्य हो जाता है और यहीं से पैदा होती सारी समस्याएं , आलस्य और अकर्मण्यता ।
सारतः यह कि जीवन में आगे बढ़ते हुए मनुष्य के के लिए आवश्यक है की वह अपनी नकारत्मकताओं पर अंकुश
लगाना सीखें , जिसके लिए निम्नांकित को जरूर अपनाएँ ।
स्वयं को एक निश्चित योजना में बांधें और उसके पूर्ण करने हेतु क्या क्या कदम उठाने है यह निश्चित करें तथा उन्हें क्रियान्वित करने का तरीका तय करें ।
मन और मष्तिष्क के सामंजस्य से यह तय करें कि आपक्या करना चाहते है और उसमें शारीरिक अक्षमताएं पैदा न होने दें ,ध्यान रहे की शरीर एवं मन को नियंत्रित और बंधन में रखें ।
स्वयं अपने संकल्प बनाएं और पूर्ण निष्ठां से उसे वैचारिकता का आधार बनाये उसे छोटे छोटे भागोंमें बाँट कर उन्हें पूर्ण करने का निश्चय करें ।
संकल्पों को नियत समय के आधार पर पूर्ण करने का प्रयत्न करें यदि समयके आधार पर आपके संकल्प सही नहीं हो पाये तो निश्चिततः आपको लाभ नहीं मिल पायेगा ।
शरीर को मन और मष्तिष्क के आधीन ही रखना चाहिए , क्योकि शरीर की आपूर्तियाँ और पोषण तो अति आवश्यक है मगर केवल शारीरिक सुख के लिए हर कार्य छोड़ देना यह पतन का मार्ग है ।
कार्य और संकल्प की पूर्ती के समय यदि कोई बाधा उत्पन्न होती है तो उसे धैर्य से पूर्ण करने का प्रयत्न करें क्योकि अति आवेश और नैराश्य में सामान्य हल भी समझ नहीं आपाता है ।
अपने संकल्प को उस परमशक्तिमान को सौंप कर कार्य करें साथ ही यह प्रार्थना करें कि मै आपके दिए हुए मार्ग में आपकी क्रियान्वयता से कार्य में लगा हूँ आप इसका निरीक्षण करते रहिये ,आपका कार्य सफल ही होगा यह विचार करते रहिये।
संकल्प की साधना या उसके चिंतन और क्रियान्वयन में आपको सामंजस्य की आवश्यकता है आपको यह चाहिए की आप समय कार्य और निरंतरता का मन बना कर कार्य करते रहिये ।
अपने संकल्प पर दोनो समय पूर्ण मनोयोग से चिंतन करे और यह भी विचार करें की मैने उसके लिए आज क्या कर सका हूँऔर कल क्या नया और अच्छा कर सकता हूँ ।
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